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जिंदगी गुजर गई सबको खुश करनेमें ... जो खुश हुए वो अपने नहीं थे ... जो अपने थे वो कभी खुश नहीं हुए ...

Friday, November 22, 2019

Good Thoughts M



Yes, I am changing

Yes, I am changing.
After loving my parents, my siblings, my spouse, my children, my friends, now I have started loving myself.

Yes, I am changing.
I just realised that I am not “Atlas”. The world does not rest on my shoulders.

Yes, I am changing.
I now stopped bargaining with vegetables and fruits vendors. After all, a few Rupees more is not going to burn a hole in my pocket but it might help the poor fellow save for his daughter’s school fees.

Yes, I am changing.
I pay the taxi driver without waiting for the change. The extra money might bring a smile on his face. After all he is toiling much harder for a living than me.

Yes, I am changing.
I stopped telling the elderly that they've already narrated that story many times. After all, the story makes them walk down the memory lane and relive the past.

Yes, I am changing.
I've learnt not to correct people even when I know they are wrong. After all, the onus of making everyone perfect is not on me. Peace is more precious than perfection.

Yes, I am changing. 
I give compliments freely and generously. After all it's a mood enhancer not only for the recipient, but also for me.

Yes, I am changing.
I've learnt not to bother about a crease or a spot on my shirt. After all, personality speaks louder than appearances.

Yes, I am changing.
I walk away from people who don't value me. After all, they might not know my worth, but I do.

Yes, I am changing.
I remain cool when someone plays dirty politics to outrun me in the rat race. After all, I am not a rat and neither am I in any race.

Yes, I am changing.
I am learning not to be embarrassed by my emotions. After all, it's my emotions that make me human.

Yes, I am changing.
I have learnt that its better to drop the ego than to break a relationship. After all, my ego will keep me aloof whereas with relationships I will never be alone.

Yes, I am changing.
I've learnt to live each day as if it's the last. After all, it might be the last.

Yes, I am changing.
I am doing what makes me happy. After all, I am responsible for my happiness, and I owe it to me.

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Love Yourself

When you are 50
you are like a basketball,
everyone wants you,
because you can still
earn an income or
be an unpaid babysitter.

When you are 60, 
you are like a volleyball,
if you can still work
everyone will aim for you,
never ending babysitting job.

When you are 70,
you are like a football,
A will kick it to B,
B will kick it to C,
C will kick it to D,
Children are grown up
and you have grown old,
no one wants you any more.

When you are 80,
you are like a golf ball,
a swing of the club....
wherever you land is
where you perhaps will
end your life !!

Therefore, when you are in your fifties and sixties,
pay attention and take good care of your own self and do not let yourself be tortured by life or other people. 

Feel free to buy what you want and eat all you want; do not hesitate! Do not be stingy to yourself.

Or....by the time you realise, you'd be gone into the golf ball era...!! ,
Love yourself and be kind to yourself.

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Please look for me now!

When I'm dead.
Your tears will flow
But I won't see
Cry with me now instead!

You will send flowers,..
But I won't see
Send them now instead.

You'll say words of praise,..
But I won't hear..
Praise me now instead!

You'll forget my faults,....
But I won't know.....
Forget them now, instead!

You'll miss me then,...
But I won't feel...
Miss me now, instead.

You'll wish...
You could have spent more time with me,...
You won't
Spend it now instead!

When you hear I'm gone, you'll find your way to my house to pay condolence but we haven't even spoken in years....
Please look for me now!!

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महाभारत 

महाभारत युद्ध समाप्त हो चुका था. युद्धभूमि में यत्र-तत्र योद्धाओं के फ़टे वस्त्र, मुकुट, टूटे शस्त्र, टूटे रथों के चक्के, छज्जे आदि बिखरे हए थे,*

वायुमण्डल में पसरी हुई थी घोर उदासी. गिद्ध, कुत्ते, सियारों की उदास और डरावनी आवाजों के बीच उस निर्जन हो चुकी उस भूमि में द्वापर का सबसे महान योद्धा देवब्रत भीष्म शरशय्या पर पड़ा सूर्य के उत्तरायण होने की प्रतीक्षा कर रहा था अकेला.

तभी उनके कानों में एक परिचित ध्वनि शहद घोलती हुई पहुँची, "प्रणाम पितामह"

भीष्म के सूख चुके अधरों पर एक मरी हुई मुस्कुराहट तैर उठी। बोले, "आओ देवकीनंदन... स्वागत है तुम्हारा. मैं बहुत देर से तुम्हारा ही स्मरण कर रहा था"

कृष्ण बोले, " क्या कहूँ पितामह! अब तो यह भी नहीं पूछ सकता कि कैसे हैं आप"

भीष्म चुप रहे. कुछ क्षण बाद बोले, "पुत्र युधिष्ठिर का राज्याभिषेक करा चुके केशव? उनका ध्यान रखना, परिवार के बुजुर्गों से रिक्त हो चुके राजप्रासाद में उन्हें अब सबसे अधिक तुम्हारी ही आवश्यकता है"
कृष्ण चुप रहे.

भीष्म ने पुनः कहा, " कुछ पूछूँ केशव? बड़े अच्छे समय से आये हो, सम्भवतः धरा छोड़ने के पूर्व मेरे अनेक भ्रम समाप्त हो जाँय।"

कृष्ण बोले- कहिये न पितामह!

एक बात बताओ प्रभु! तुम तो ईश्वर हो न.. कृष्ण ने बीच में ही टोका, "नहीं पितामह! मैं ईश्वर नहीं। मैं तो आपका पौत्र हूँ पितामह, ईश्वर नहीं।"

भीष्म उस घोर पीड़ा में भी ठठा के हँस पड़े। बोले, "अपने जीवन का स्वयं कभी आकलन नहीं कर पाया कृष्ण, सो नहीं जानता कि अच्छा रहा या बुरा। पर अब तो इस धरा से जा रहा हूँ कन्हैया, अब तो ठगना छोड़ दे रे..."
कृष्ण जाने क्यों भीष्म के पास सरक आये और उनका हाथ पकड़ कर बोले, " कहिये पितामह!"
भीष्म बोले, "एक बात बताओ कन्हैया! इस युद्ध में जो हुआ वो ठीक था क्या?"

- "किसकी ओर से पितामह? पांडवों की ओर से?"

- "कौरवों के कृत्यों पर चर्चा का तो अब कोई अर्थ ही नहीं कन्हैया, पर क्या पांडवों की ओर से जो हुआ वो सही था? आचार्य द्रोण का वध, दुर्योधन की जंघा के नीचे प्रहार, दुःशासन की छाती का चीरा जाना, जयद्रथ के साथ हुआ छल, निहत्थे कर्ण का वध, सब ठीक था क्या? यह सब उचित था क्या?"

- इसका उत्तर मैं कैसे दे सकता हूँ पितामह! इसका उत्तर तो उन्हें देना चाहिए जिन्होंने यह किया। उत्तर दें दुर्योधन का वध करने वाले भीम, उत्तर दें कर्ण और जयद्रथ का वध करने वाले अर्जुन, मैं तो इस युद्ध में कहीं था ही नहीं पितामह!

- "अभी भी छलना नहीं छोड़ोगे कृष्ण? अरे विश्व भले कहता रहे कि महाभारत को अर्जुन और भीम ने जीता है, पर मैं जानता हूँ कन्हैया कि यह तुम्हारी और केवल तुम्हारी विजय है। मैं तो उत्तर तुम्ही से पूछूंगा

कृष्ण!" - "तो सुनिए पितामह! कुछ बुरा नहीं हुआ, कुछ अनैतिक नहीं हुआ। वही हुआ जो हो होना चाहिए।"

- "यह तुम कह रहे हो केशव? मर्यादा पुरुषोत्तम राम का अवतार कृष्ण कह रहा है? यह क्षल तो किसी युग में हमारे सनातन संस्कारों का अंग नहीं रहा, फिर यह उचित कैसे गया? "

- "इतिहास से शिक्षा ली जाती है पितामह, पर निर्णय वर्तमान की परिस्थितियों के आधार पर लेना पड़ता है। हर युग अपने तर्कों और अपनी आवश्यकता के आधार पर अपना नायक चुनता है। राम त्रेता युग के नायक थे, मेरे भाग में द्वापर आया था। हम दोनों का निर्णय एक सा नहीं हो सकता पितामह।"

-" नहीं समझ पाया कृष्ण! तनिक समझाओ तो..."

-"राम और कृष्ण की परिस्थितियों में बहुत अंतर है पितामह! राम के युग में खलनायक भी 'रावण' जैसा शिवभक्त होता था। तब रावण जैसी नकारात्मक शक्ति के परिवार में भी विभीषण और कुम्भकर्ण जैसे सन्त हुआ करते थे। तब बाली जैसे खलनायक के परिवार में भी तारा जैसी विदुषी स्त्रियाँ और अंगद जैसे सज्जन पुत्र होते थे।

उस युग में खलनायक भी धर्म का ज्ञान रखता था। इसलिए राम ने उनके साथ कहीं छल नहीं किया।

किंतु मेरे युग के भाग में कंस, जरासन्ध, दुर्योधन, दुःशासन, शकुनी, जयद्रथ जैसे घोर पापी आये हैं। उनकी समाप्ति के लिए हर छल उचित है पितामह। पाप का अंत आवश्यक है पितामह, वह चाहे जिस विधि से हो।"

- "तो क्या तुम्हारे इन निर्णयों से गलत परम्पराएं नहीं प्रारम्भ होंगी केशव? क्या भविष्य तुम्हारे इन छलों का अनुशरण नहीं करेगा? और यदि करेगा तो क्या यह उचित होगा?"

-"भविष्य तो इससे भी अधिक नकारात्मक आ रहा है पितामह। कलियुग में तो इतने से भी काम नहीं चलेगा। वहाँ मनुष्य को कृष्ण से भी अधिक कठोर होना होगा, नहीं तो धर्म समाप्त हो जाएगा।

जब क्रूर और अनैतिक शक्तियाँ धर्म का समूल नाश करने के लिए आक्रमण कर रही हों, तो नैतिकता अर्थहीन हो जाती है पितामह! तब महत्वपूर्ण होती है विजय, केवल विजय। भविष्य को यह सीखना ही होगा पितामह।"

-"क्या धर्म का भी नाश हो सकता है केशव? और यदि धर्म का नाश होना ही है, तो क्या मनुष्य इसे रोक सकता है?"

-"सबकुछ ईश्वर के भरोसे छोड़ कर बैठना मूर्खता होती है पितामह! ईश्वर स्वयं कुछ नहीं करता, सब मनुष्य को ही करना पड़ता है।
आप मुझे भी ईश्वर कहते हैं न! तो बताइए न पितामह, मैंने स्वयं इस युद्घ में कुछ किया क्या? सब पांडवों को ही करना पड़ा न? यही प्रकृति का संविधान है। युद्ध के प्रथम दिन यही तो कहा था मैंने अर्जुन से। यही परम सत्य है।"

भीष्म अब सन्तुष्ट लग रहे थे। उनकी आँखें धीरे-धीरे बन्द होने लगीं थी। उन्होंने कहा- चलो कृष्ण! यह इस धरा पर अंतिम रात्रि है, कल सम्भवतः चले जाना हो... अपने इस अभागे भक्त पर कृपा करना कृष्ण!"

कृष्ण ने मन मे ही कुछ कहा और भीष्म को प्रणाम कर लौट चले, पर युद्धभूमि के उस डरावने अंधकार में भविष्य को जीवन का सबसे बड़ा सूत्र मिल चुका था

जब अनैतिक और क्रूर शक्तियाँ धर्म का विनाश करने के लिए आक्रमण कर रही हों, तो नैतिकता का पाठ आत्मघाती होता है।

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संघर्ष

संतती लायक असेल तर कमवून ठेवण्याची काहीच गरज नाही, कारण ते स्वतः कमविल्याशिवाय रहाणार नाहीत.

आणि संतती नालायक असेल, तर अजिबात कमवून ठेवण्याची गरज नाही. कारण आपल्या समोरच त्या संपत्तीला  काडी लावल्याशिवाय रहाणार नाहीत.

 विठ्ठलपंत आणि रूक्मिणी मातेने देहांत शिक्षा घेतली, त्यावेळी निवृत्ती , ज्ञानदेव, सोपान व मुक्ताई यांचे वय काय होते? त्या वयात निर्माण झालेली जबाबदारी विश्वाचे कल्याण करणारी ठरली.

 छत्रपती शिवरायांच्या हातात त्यांच्या चौदाव्या वर्षी पुणे जहांगीर सोपवली गेली.

शहाजी राजांनी वयाच्या पाचव्या वर्षी इंदापूर जहांगीर सांभाळली.

जबाबदारी जेवढ्या लहान वयात अंगावर पडते, तेवढे कर्तृत्व महान होते. म्हणून आपल्या मुलांना जबाबदारी घ्यायला शिकवा आणि त्यांना स्वतःच्या पायावर उभे करा.

संघर्ष:
आजकालच्या मुलांना झाडावर चढून फळे काढता येत नाहीत, साधे घरातील माळ्यावर ठेवलेली वस्तुसुद्धा काढायला घाबरतात. उंच जागी चढतांना आईच्याकडून धीर मिळत नाही. तर "पडशील", "घसरशील", "तुला जमणार नाही", "उतर, कुणालातरी बोलावून करूया", असे शब्द ऐकायला मिळतात.
     या मुलांच्या आया आणि बाप, मुले मोठी झाली तरी मुलांच्या शाळेची बॅग शाळेला जाणाऱ्या रिक्षा किंवा व्हॅनमध्ये पोहोचवून देतात, हे पाहिल्यावर मुलांची किव येते.
      आज सत्तरी ओलांडलेल्या आई वडिलांनी मुलांना संघर्ष शिकवला, परंतू तीच मुले आपल्या मुलांना तसा संघर्ष का शिकवत नाहीत, याचे नवल वाटते?
      पाश्चिमात्य देशात मुले आपली सायकल (पंक्चर इ.) स्वतः दुरूस्त करतात, त्यांच्याकडे त्याचे किट असते. यात सर्व हत्यारे असतात, ज्याचा वापर मुले अगदी सहजतेने करतात.
     नवीन पिढीतील मुलांना स्वावलंबी करणे, हेच खरे पालकत्व आहे. त्यांना शर्टाचे किंवा ड्रेसचे बटन लावणे, इस्त्री करणे, आपापले कपडे धुणे, सकाळी उठल्यावर स्वतःची चादर घडी करून योग्य ठिकाणी ठेवणे, पुस्तकांना कव्हर लावणे, बूट पॉलिश करणे, सर्व चप्पल-बूट जोड नीट एक रेषेत ठेवणे, वेळप्रसंगी भांडी धुणे, कचरा साफ करणे हे आलेच पाहिजे. लाड खाण्यापिण्याचे करा, कामात लाड वर्ज्य आहे.
      स्वयंपाक खोलीत त्यांना मदतीला आवर्जून बोलवा, आठवड्यातून एकदा आई वडिलांच्यासाठी चहा बनवायला सांगा. दोन कप चहासाठी किती चहा, साखर व दुध लागते याचा अंदाज स्वतः केल्याशिवाय त्यांना कधीच येणार नाही. हे करताना बऱ्याच वेळेस चटका ही लागतो, लागू दे! ही जखम दोन दिवसांची असते, पण आयुष्यभराची शिकवण देऊन जाते. या व अश्या कामातून मुलांना जबाबदारी घेण्याची सवय होते, तसेच ही कामे खालच्या दर्जाची नसतात हे ही समजते.
      आजकाल एक वाक्य नेहेमी ऐकण्यात येते, "मला जे कष्ट करावे लागले ते माझ्या मुलांना करायला लागू नयेत"

     विचार करावा, आपण चुकीच्या मार्गाने तर जात नाही ना?


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