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जिंदगी गुजर गई सबको खुश करनेमें ... जो खुश हुए वो अपने नहीं थे ... जो अपने थे वो कभी खुश नहीं हुए ...

Thursday, December 04, 2025

Varad with Laila

 



कविताची मुलगी

 


                               खुद-नविश्त

  

मै परी, नही भूली मै मेरी तिफ्ली जब माँ के संग मै थी

कुछ दो साल पहले की बात है, शिर-ख्वार बिलौटा मै थी

मै थी गोरी और नाजुक, बर-अक्स सियाह और जखीम मेरी माँ

सडक के बाजू में था मेरा घर, गुर्बत का न था मुझे कभी गुमाँ

इक दिन सह-पहर इक रहगीर खातूनकी पडी नजर मुझपर  

दफतन उसने मुझे उठाया, आगोश में लिया, किया प्यार

जाना मुझे उसने जनम-जनमका संगी-साथी, हुई बेपनाह शादमाँ

किया उसने इसरार अपने साथी से, ले चलो इसे अपने आशियाँ

मुझे मेरी प्यारी वालिदाके गोदसे जबरन रुखसत होना पडा

और गैर-इरादतन एक अजनबी घर में मुंतकिल होना पडा

नये घर में दाखिल हुई तो देखा मैने सीढीयाँ और जीना

बिला ताखिर गई उपर जरूरी था बाला हिस्सेका जायजा लेना

इब्तिदामें मै मुस्तकबिलसे घबरा गई कि लाया गया मुझे कहां

बहरहाल, यह घर ठीक है; पर हैफ! नही है मेरी प्यारी माँ यहां

बडी उल्फतसे खातिर-तवाजो की गई मेरी इस नये आशियाने में

शीर दिया मुझे पीने, न नोश किया मैने मलाल-ओ-एहतिजाज में

मेरे रूख पे था इक जख्म, घरवालोंने यौमिया वहां दवा लगाई

मेरी बालोंमे थे अनगिनत पिस्सू, सुफूफ लगाके मुझे निजात दिलाई

मेरे लिये मछली की गिजा लाते घरवाले, वो मै चावसे खाती

भारत में हूं फिर भी पर्शियन बिल्ली हूं मै, दूध क्यों कर पीती?

रफ्ता रफ्ता मै भूल गई माँको और इस घरकी एक रुक्न बन गई

घरवाली ने की मेरी खूब खिदमत,  उससे मैने बहुत उल्फत पाई

मुझे देख कर, सिर्फ मेरे वजूदसे भी वो बहुत खुश होती रहती है

सच बात तो यह है कि वो अब मुझे मेरी माँ जैसी लगने लगी है

मै साफ सुथरी हूं, नफरत है मुझे, कतई पसंद नहीं मुझे गुस्ल

लेकिन घरवाली मुझे बाज औकात जबरदस्ती करवाती है गुस्ल

घरवाली मुझे पकड कर मेरे नाखुन भी काटती है, यह जुल्म है

कभी कभार मेरी मूंछे भी कटवाती है, यह तो सरासर गलत है

मुझे पकडके वो उसके आगोशमें, ख्वाह ऊन्स से, मुझे दबाती है

मुझे यह बिलकुल नागवार है, क्या करें, बरदाश्त करना पडता है

घरवाली उसके ख्वाब-गाह में मुझे शबको रोज सुलवाती है

मेरी सारी जरूरतोंका घरवाली दिलसे खूब खयाल रखती है

कैसा है यह रिश्ता, मुझे घरवाली से होने लगा है बेइंतिहा प्यार

कभी मुझे छोड कर तो वह नही जाएगी, सताता है मुझे यह डर

जब वो काम से बाहर जाती है, तो जेहन में मै यह सोचती हूं

कब आयेगी वो वापिस, और मायूसीसे दरवाजा तकती रहती हूं

कभी कभार  मै आधी रातको आनन-फानन बेदार हो जाती हूं

क्या करूं नीन्द नहीं आती तो मियांव मियांव पुकार देती हूं

घरवाली जाग जाती है, बाद में मेरी आवाजसे सो नहीं पाती है

पर मुझसे क्यों गिला, नीन्द न आना उसकी पुरानी बिमारी है

मैने उनका फर्निचर नोचा, नुकसान किया, इन का है यह गिला

कहां पर मै नाखून तेज करूं, है इंतिजाम यहां?, बताओ तो भला

घरवाला भी अच्छा है, शरीफ है, करता है खूब प्यार मुझे

मै तो सियानी हूं लेकिन पुकारता है बोलकर येडी मुझे!

वो मुझसे मीठी बातें करता है, मुझे बहलाता, मजाक करता है

मेरे लिये जाइकेदार गिजा बांगडा मछली बाजाब्ता लाते रहता है

है रगबत उसके लम्स से मुझे, मेरे बदन पर फेरता है पैर

झुक कर हाथ फेरनेमें होगी दुश्वारी उसे घुटनेके दर्दसे, खैर

घरवाला बेसुरा बाजा बजाता है, तो मै रोकनेके मकसद से काटती हूं उसे

घरवाली बेटीसे फोन पर लगातार बोलती है, तोभी हसदसे काटती हूं उसे

कभी कभी चहार दिवारी में निहायत ऊब जाता है मेरा जी

घर के बाहर जरा जाके  थोडी देर टहलने को चाहता है जी

लेकिन मुझे घर के हुदूद से बाहर जाने की इजाजत है नहीं

तो मै घूमती हूं बागीचे में, वहां भी जादा देर ठहरेने देते नहीं

 

घरवालेकी कोठरी के दरीचेमें देर तक बैठना है खुशगवार मुझे

वहां से पेड, पत्ते, परिन्दोंका खूबसूरत नजारा दिखता है मुझे

मै बेल बजनेकी की आवाज अच्छी तरह अब पहचानती हूं

तब मै सीढी पर आके बैठती हूं, कौन आ रहा है देखती हूं

नये अफ्राद घर में आनेसे मै डरती हूं, रहती हूं उनसे दूर 

लेकिन जान पहचान होने के बाद मेरा डर हो जाता है दूर

घर में जरूरत के मुताबिक लोग आते जाते रहते है कभी कभी

घरवाली ने लगायीं मुख्तलिफ खुद्दाम पर नहीं टिकी एक भी

घर में बारहा आते जाते है कई रिश्तेदार और कई मेहमान

आहिस्ता आहिस्ता मुझे अब हो गई है सब की अच्छी पहचान

छोटे छोटे अत्फाल घर में आते है तो मुझे पकडना चाहते है

मै खौफ खाती हूं उन से, वो दिनभर मुझसे शैतानी करते है

अब हर मेहमान का हुलिया और फितरत मै जानने लगी हूं

एक मेहमान को तो मै उसके लंबे टांगोंसे भी पहचान लेती हूं

सर्मा हो या गर्मा मुझे इस घर में रहना अभी लाजिमी है

दूर करो मेरी दर्ज-जैल शिकायतें, यही मेरी अब इल्तिजा है

मेरा एक आशिक है, तुम मुझे उससे कतई नहीं मिलने देते

लैला मजनू का यह पाक रिश्ता तुम तस्लीम क्यों नहीं करते

तुम्हारे सब के अपने बाल-बच्चे है, किसका एक, किसके दो

मेरे कुछ भी नहीं, मेरे बाल बच्चोंका मुंह मुझे देखने तो दो

मुझे मकान के बाहर जाना मना है, माना कि तहफ्फुज के लिये

सिफर दुनिया भर घूमता है, मुझे गिर्द-ओ-नवाह तो घूमने दीजिये

 

हरिश्चंद्र गोपाळराव कुलकर्णी

९ अप्रैल, २०२२         


परी



              जीस्त

 

क्या बयाँ करूं रूदाद-ए-जीस्त; थी मुसबतभी, मन्फी भी

देखी गुजरी हुई जिंदगीमें; खिजाँ भी, बहार भी

किस्मतमें थी मेरी; तिश्नगी भी, सेरी भी

रबका लाख शुक्र; दिया दर्द भी, दी दवा भी

चल पडा जादा-ए-इश्क; मिला वस्ल भी, हिज्ऱ भी

तजुर्बा-ए-प्यार में; मिली वफा भी, जफा भी

दिल-दादा हूं मै; तसव्वुफ का भी; तसव्वुर का भी

देखें ख्वाब मुख्तलिफ; हुए कुछ पूरे, कुछ अधूरे भी

वजह-ए-मआशमें मशमूल; पेशा भी, मुलाजमत भी

माली हालतमे थी; तंगी भी, बरकत भी

थे जिंदगीमें मुंतशिर; मसाईल भी, हल भी

आजमाया आलम-ए-नैरंग में, सराब भी खुलूस भी

गिर्द-ओ-नवाह मेरे; खैर-ख्वाह भी दुश्मन भी

पाया अपनोंसे कुछ; इज्तिराब भी, सुकून भी

लौह-ए-बख्त मेरी गूनागूं; पर सियाह भी, सफेद भी

दिल लुभाया अदबने; शैदाई था अंग्रेजीका, रेख्ताका भी

तफ्रीहमें हुए लुत्फ-अंदोज; समई भी बसरी भी

निकले जब सियाहत पर; घूमा मग्रिबभी, मशरिकभी 

अब क्या बाकी सिफर’; इस दुनिया-ए-फानी मे

बचे है दो लम्हात ; इक मेरे लिये, इक तेरे लिये भी

 

दि. १२.३.२०२२

हरिश्चंद्र गोपाळराव कुलकर्णी

 

زیست                       

کیا  بیاں  کروں  رودادِ زیست تھی  مثبت  بھی منفی  بھی

دیکھی گزری  ہوئی  زِندگی  میں  خِزاں  بھی  بہار  بھی

 قِسمت  میں تھی  میری  تِشنگی  بھی  سیری  بھی

رب  کا  لاکھ  شُکر  دِیا  درد  بھی  دی  دوا  بھی

چل  پڑا  جادہء عِشق  مِلا  وصل  بھی  ہِجر  بھی

تجربہء  پیار  میں  ملی  وفا  بھی  جفا  بھی

دِل-دادہ  ہوں  میں تصوُّف   کا  بھی تصوُّر  کا  بھی

دیکھیں خواب  مُختلف  ہوے کچھ  پورے  کچھ  ادھورے بھی

وجہء معاش  میں  مشمول  پیشہ  بھی  ملازمت  بھی

مالی  حالت  میں  تھی  تنگی  بھی  برکت  بھی

تھے  زِندگی  میں  مُنتشِر  مسائل  بھی  حل  بھی

آزمایا  عالمِ  نیرنگ  میں  سراب  بھی  خُلوص  بھی

گِرد  و  نواح  میرے  خیرخواہ  بھی  دُشمن  بھی

پایا  اپنوں  سے کچھ  اِضطراب  بھی  سُکون  بھی

لوحِ  بخت  میری  گوناگوں  پر  سیاہ  بھی  سفید  بھی

دِل  لُبھایا  ادب  نے  شیدائی  تھا  انگریزی  کا  ریختہ  کا  بھی

تفریح  میں  ہوے  لطف اندوز  سمعی  بھی  بصری  بھی

نِکلے  جب  سیاحت  پر  گھوما  مغرِب  بھی  مشرِق  بھی

اب  کیا  باقی  'صفر'  اِس  دُنیا ےء  فانی  میں

بچے  ہیں  دو  لمحات  اِک  میرے لیے  اِک  تیرے  لیے  بھی

۱۲/مارچ  ۲٠۲۲

ہریشچندر  گوپال راؤ  کُلکرنی

 


Wednesday, December 03, 2025

Vihaan

 



 

      संकल्पपूर्ती

 

संकल्पपूर्तीचा क्षण भाग्याचा

दीपक तेवावा सदा सौख्याचा

परस्परांची नित्य मने मिळू दे

प्रीत बहरू दे, शांती लाभू दे  ... ||१||

 

तीर्थक्षेत्र जणु घरच तुमचे

वरद विनायक अपत्य तुमचे

रहावी तुम्हावरी कृपा रेणुकेची

ददात न पडो कधी कशाची  ... ||२||

 

- हरीश कुलकर्णी 

    २५.९.२०२५

Monday, August 28, 2023

 



              Anonymous

 

High on the hills low in the lakes

After the sunset and before it wakes

Running on the banks, dipping in the water

In my hands your pretty palms

 

Sky is blue and horizon rosy

Happy birds and flowers hazy

Vanishing slowly a veil of cloud

And you, with me, are laughing loud.

 

Smooth and silky thy hairs shine

And lovely curves of eyebrow line

Nothing is hypnotic than your eyes

There on my shoulder your forehead lies

 

In this winter my mouth sips

Pinkish cheeks thy rosy lips

Roaming on the rock, lying on the sand

Enjoyed we lot on the tableland

 

Moon is rising and stars are twinkling

Path is charming, memories lingering

Right on my lips your lips rest

In my arms thy beautiful waist

 

Two bodies but soul one

In this world we alone!